वाराणसी में जगन्नाथ डोली यात्रा निकाली गई। इसके साथ लक्खा मेला भी शुरू हो गया है। करीब 5 किलोमीटर लंबी यात्रा में भगवान जगन्नाथ, भाई बलदाऊ और बहन सुभद्रा ने भक्तों को दर्शन दिए। 50 हजार भक्तों ने डोलीयात्रा पर फूल बरसाए। ये रवायत 350 साल से बनारस में चली आ रही है।भगवान जगन्नाथ डोली में सवार होकर निकले। शंकुलधारा पर भगवान जगन्नाथ की भव्य आरती उतारी गई। यहां पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु और मंदिर के अर्चक पुजारी मौजूद रहे। चारों ओर हर हर महादेव और जय कन्हैया लाल का जयघोष हो रहा था। डोली उठाए लोग भी जय जगन्नाथ का जयघोष कर थे। यहां पर भगवान का रथ रोका गया।
शुक्रवार को भोर में मंगला आरती और भोग के बाद दर्शन-पूजन का सिलसिला शुरू हो जाएगा।भगवान जगन्नाथ की डोली रथ यात्रा चौराहे पर पहुंची । रास्ते भर में करीब 50 हजार श्रद्धालुओं ने भगवान जगन्नाथ और उनके कुटुंब पर पुष्पवर्षा की। डोली के आगे आगे डमरू दल ने डमरू बजाकर लोगों गलियों को भक्तिमय कर दिया। हर कोई अपने घरों की खिड़की और रेलिंग से फूलों की बारिश करते रहे।काशी के लक्खा मेले में शुमार रथ यात्रा का मेला 27 जून से शुरू होकर 29 जून तक चलेगा। ऐसा पहली बार होता है, जब भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ रथ पर सवार होकर काशी वासियों को दर्शन देते हैं।
बात है 1765 के बाद की। पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर के मुख्य पुजारी ब्रह्मचारीजी की पुरी के राजा से विवाद हो गया। पुजारी ब्रह्मचारी पुरी को छोड़कर काशी आ गए। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में रखी भगवान वासुदेव, भाई बलदाऊ और बहन सुभद्रा की प्रतिमा का प्रतिरूप लेकर काशी आए। यहां गंगा किनारे अस्सी घाट पर रहने लगे।पुरी के राजा को बाद में पश्चाताप हुआ तो फिर ब्रह्मचारी जी को बहंगी (भोग वाला प्रसाद) भिजवाना शुरू किया। हर सप्ताह यह बहंगी बनारस भेजी जाती थी। क्योंकि पुजारी पुरी के भगवान जगन्नाथ को चढ़े भोग के अलावा कोई भोजन नहीं ग्रहण करते थे। एक बार उड़ीसा में भयानक चक्रवात और बाढ़ के कारण बहंगी काशी नहीं पहुंच पाई। कई सप्ताह तक ब्रह्मचारी इंतजार करते-करते भूखे रहने लगे। जगन्नाथ मंदिर में लगे घंटे के अनुसार, मंदिर निर्माण की शुरुआत 1768 में हुई। एक दिन ब्रह्मचारी जी को सपना आया कि काशी में मेरा मंदिर बनवाओ। वहीं पर भोग लगवाओ और उसी का भोजन करो।पुजारी ने छत्तीसगढ़ के भोसले साम्राज्य से मंदिर बनाने मदद मांगी। छत्तीसगढ़ के राजा व्यंकोजी भोंसले ने काफी धन दिया। मंदिर और रथ यात्रा मेलों का आयोजन कराने के लिए राजा व्यंकोजी ने छत्तीसगढ़ का तखतपुर महाल जगन्नाथ जी को दान कर दिया। तखतपुर महाल से मिले रेवेन्यू द्वारा मंदिर का सारा प्रबंध होता था। उनके मंत्री पं. बेनीराम और कटक के दीवान विश्वंभर पंडित ने पूरी मदद की और 1790 में जगन्नाथ स्वामी, बलभद्र और सुभद्रा का मंदिर बनकर तैयार हो गया।पुरी जैसा ही नियम बनारस के जगन्नाथ मंदिर में लागू हुआ। 1857 के विद्रोह में भोसले साम्राज्य अंग्रेजों के अधीन हो गया। उनकी पूरी संपत्ति पर अवैध कब्जा कर लिया गया। इसके बाद से मंदिर को रेवेन्यू मिलना बंद हो गया। लगातार इस मंदिर की उपेक्षा होती रही। बहरहाल, क्रांति के बाद मंत्री बेनीराम को मंदिर का मैनेजर बनाया गया। तब से लेकर अब तक पं. बेनीराम की ही पीढ़ियां इस मंदिर में नियमित पूजा-पाठ करती चली आ रही है। 1805 में बेनीराम का निधन हो गया। इसके बाद उनके वंशज 221 सालों से इस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। 1818 में पुरी की प्रदक्षिणा कर पुजारी ब्रह्मचारीजी काशी लौटे और यहां अस्सी घाट पर समाधि ले ली। मंदिर में रखे उनके वस्तुओं की पूजा आज भी होती है।